इन्सान के हाथों से पत्थर से गढी हुई मूर्ति में हमने भगवान को तराशने की कोशिश की लेकिन भगवान के हाथों से बने हुए बिलखते मासूम बच्चों में हम अपने परमात्मा को नहीं देख पाए यह एक दुर्भाग्य है। आज उस भगवान को मासूमों के अन्दर ढूढने की आवश्यकता है। इन मासूम बच्चों की सेवा करते हुए परमात्मा को ढूढने की कोशिश कर।
स्मरणीय
जैसे ऐक पत्थर को तराशने से सुन्दर मूर्ति बन सकती है ऐसे ही कर्मों के सहारे ज़िन्दगी को तराशने से ज़िन्दगी का स्वरूप बहुत सुन्दर बन सकता है।
बडों के प्रति सम्मान की भावना , आत्मीयजनों के प्रति कोमलता ,स्वयं के प्रति निरीक्षण की भावना रखते हुए आत्मचिंतन के शीशे में अपने को रोज निहार।
धर्मदूत अप्रेल २००६
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